भाषा का जादू या जाल?
जब किसी को ‘स्पेशल’ कहा जाता है, तो यह सुनने में मधुर लगता है। लेकिन क्या यह वास्तव में सम्मानजनक है? या फिर यह शब्द हमारे समाज की गहरी जड़ें जमा चुकी सहानुभूति और भेदभाव को ढंकने का एक सुंदर आवरण मात्र है? सवाल यही है कि क्या इस एक शब्द से विकलांगता के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदलता है या यह केवल शब्दों की सजावट भर होती है?
‘स्पेशल’ शब्द: सम्मान या सहानुभूति?
”स्पेशल’ कहने का इरादा भले ही अच्छा हो, लेकिन इसका प्रभाव कई बार उल्टा पड़ता है। यह शब्द विकलांग व्यक्तियों को सामान्य समाज से अलग करके एक काल्पनिक ‘विशेष’ समूह में डाल देता है, मानो वे किसी दूसरे ग्रह से आए हों, जिन्हें ‘विशेष’ सहानुभूति की जरूरत हो। अगर सब कुछ इतना ‘स्पेशल’ है, तो फिर उन्हें सामान्य शिक्षा, रोजगार और सुविधाओं से क्यों वंचित रखा जाता है?शिक्षा, सामान्य रोजगार और सामान्य सुविधाओं से क्यों वंचित रखा जाता है?
आंकड़ों की कहानी: विकलांगता की वास्तविकता
- भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार, लगभग 2.21% जनसंख्या विकलांग है। और 2011 के बाद तो जनगणना भी नहीं हुई. और ये आंकड़े भी कोई ऐसे आंकड़े नहीं जिनपे भरोसा नहीं किया जा सकता
- रोजगार में भागीदारी: लगभग 64% विकलांग व्यक्ति बेरोजगार हैं। पुरुषों में यह दर 47% है, जबकि महिलाओं में केवल 23% ही रोजगार में हैं।
- शिक्षा में भागीदारी: UDISE+ 2021-22 के अनुसार, लगभग 22.66 लाख विशेष आवश्यकता वाले बच्चे स्कूलों में नामांकित हैं, लेकिन उच्च शिक्षा में यह संख्या घटती है।
क्या ‘स्पेशल’ शब्द ने इनके लिए कोई अद्भुत चमत्कार किया? काश शब्दों से ही पेट भर जाता, तो शायद नौकरी की जरूरत ही न होती!
भाषा और समाज: शब्दों का प्रभाव
”स्पेशल’, ‘दिव्यांग’, ‘विकलांग’ — समाज ने नामों का पिटारा खोल रखा है, पर समस्या वही की वही। ‘दिव्यांग’ शब्द भी कम विडंबना नहीं है। जो शरीर किसी कमी या कठिनाई से जूझ रहा है, उसे ‘दिव्यता’ का लेबल लगाना क्या सच्ची समझदारी है? यह एक तरह का महिमा मंडन है, जो उनकी असली चुनौतियों को अदृश्य कर देता है।
भाषा जब तक केवल सहानुभूति और सजा-सजाया लेबल रहेगी, तब तक असली बदलाव संभव नहीं।
कल्पना कीजिए, किसी ने अपने ऑफिस में एक स्पेशल मीटिंग रखी — जहाँ केवल ‘स्पेशल’ लोग जा सकते हैं।
आपसे भी कहा गया — “आप बहुत स्पेशल हैं, इसलिए इस आम दुनिया से थोड़ा अलग रहिए।” आप कैसा महसूस करेंगे? यही होता है जब विकलांगों को ‘स्पेशल’ कहकर अलग किया जाता है।
सम्मान देने के नाम पर उन्हें अलग-थलग कर देना, असली समानता से उन्हें दूर ले जाना है।
समाधान: सम्मानजनक भाषा और व्यवहार
- विकलांग व्यक्तियों को उनके नाम और पहचान से बुलाइए, ‘स्पेशल’ या ‘दिव्यांग’ की लेबलिंग से नहीं।
- उन्हें शिक्षा, रोजगार और समाज में पूर्ण भागीदारी का अवसर दीजिए।
- सम्मान केवल शब्दों में नहीं, अवसरों और व्यवहार में दिखना चाहिए।
निष्कर्ष: शब्दों से परे असली सम्मान
‘स्पेशल’ या ‘दिव्यांग’ जैसे शब्द अगर केवल सहानुभूति या दिखावे के लिए प्रयोग होते हैं, तो उनका कोई महत्व नहीं।
वास्तविक सम्मान तब होता है जब हम किसी की पहचान को उसकी क्षमताओं से, उसकी उपलब्धियों से आँकें, न कि उसकी शारीरिक या मानसिक स्थिति से। हमें भाषा से आगे बढ़कर समाज में समानता और न्याय लाने की जरूरत है।